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गांधी

20 वीं शताब्दी के जाते जाते गांधी मेरे लिए एक प्रहालिका थे। तब मेरे लिए गांधी कुछ भी हो सकते थे लेकिन वे न मेरे लिया राष्ट्रपिता थे और न ही भारत की स्वतंत्रता के नायक। मेरे लिए उनका महात्मात्व भी एक भीरू एवं हारे हिंदू समाज की अभिव्यक्ति की दरिद्रता से अधिक कुछ नहीं था। फिर जैसे जैसे मेरे ज्ञानचक्षु खुले और भारत की सरकारों वा उनके द्वारा मान्यता प्रदान बौद्धिक समाज द्वारा पारंपरिक रूप से गढ़े गए कथानकों और प्रतिस्थापित किए गए नायकों से प्रश्न किए जाने की उत्कंठा हुई तो पाया की जो बताया गया, जो दिखाया गया और जो पढ़ाया गया, वो रावण की मायावी लंका से ज्यादा नही तो कम नही था।

अब जब मैं 21 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के मध्यकाल में पहुंच गया हूं तब लगता है की वाकई गांधी को लेकर जो मेरी दुविधा थी वो विकट थी। इसका कारण शायद यह था की स्वतंत्रता के बाद से गांधी, विश्व में भारत का सबसे ज्यादा बिकने वाले प्रतीक बने और उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसावाद दर्शन, जो स्वयं में एक अर्धसत्य है, का महिमामंडल हुआ। मेरे लिए गांधी एक पहेलिका बन गए क्योंकि भारत, विश्व में जिसे बेच रहा और खुद विश्व, जिसको स्वयं के निजी स्वार्थ पर आधारित कार्यक्रमों को बढ़ाने के लिए बढ़ा रहा, वह इतना कोटरगत है की उसकी, न सिर्फ भारतीय समाज में कोई व्यवहारिकता है और न ही उसकी उपयोगिता।

मैं अब गांधी को एक अलग दृष्टि से देखने लगा हूं, मुझे लगता है की गांधी अपने समय से बहुत आगे के पक्के लिबरल थे। वे उतने ही छद्म चरित्र के प्रहरी वा मर्यादा को अमर्यादितत्व से संचित करने वाले थे जितना 21वीं शताब्दी के बौद्धिक वा लिबरल है।

#pushkerawasthi

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