नैरेटिव तैयार करने की छिपी साज़िश के तहत भारतीय फिल्मों का विकास
लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत के बाद, मोरारजी देसाई को जनता का भारी समर्थन मिला, लेकिन कांग्रेस का सिंडिकेट उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाना चाहता था। यहीं से सत्ता में बने रहने के लिए इस्लामवादियों और कम्युनिस्टों के साथ सत्ताधारी दल की ज़बरदस्त साठगाँट शुरू होती है।
अपनी कुर्सी को लेकर अपने ही वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से भयभीत रहने वाली इंदिरा गाँधी ने सत्ता में बने रहने के लिए ‘समाजवाद’ की नई खोज के साथ वामपंथी रास्ते को अपना लिया। इसके कारण उन्होंने कई विवादास्पद निर्णय भी लिए।
सरकार ने निजी व्यवसायों पर नियंत्रण कर लिया और बैंकिंग क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया। ये शुद्ध दिखावा और आम लोगों का ब्रेनवॉश कर उन्हें इस भ्रम में डालना था कि ये कदम गरीबों के हित में हैं।
श्रीमती गांधी पूरी पार्टी को नियंत्रित करना चाहती थीं और पार्टी में उनके खिलाफ असंतोष के बाद उन्हें अपनी ही कांग्रेस पार्टी से निष्कासित कर दिया गया।
श्रीमती गांधी ने एक नई पार्टी बनाई और विभाजन के बाद उनके पास 221 सीटें थीं। इसका मतलब था कि वो पहली अल्पमत की सरकार बनाने जा रही थीं और उन्हें बहुमत के लिए 41 सांसदों की ज़रूरत थी।
श्रीमती गांधी किसी भी कीमत पर सत्ता में रहना चाहती थीं और इसके लिए उन्होंने कम्युनिस्टों से मदद मांगी। इस बीच, वामपंथी खुश थे क्योंकि श्रीमती गांधी वामपंथ के रास्ते पर चल पड़ी थीं और इस वजह से लेफ्ट उनके साथ आ गया। कम्युनिस्ट (मुख्य रूप से केरल और पश्चिम बंगाल से), और तमिलनाडु से वामपंथ समर्थक द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) अब गठबंधन का हिस्सा थे।
1971 के आकस्मिक चुनावों में जब इंदिरा गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आर) की जीत हुई तो काँग्रेस-कम्युनिस्ट एकता और पक्की हो गई। कम्युनिस्टों ने सफलता में अपना हिस्सा मांगा और शिक्षा विभाग पर कब्जा कर लिया।
इस प्रकार, खुल्लम-खुल्ला इस्लामीकृत शिक्षा का युग शुरू हो गया और पाठ्यपुस्तकों में किए गए बड़े बदलावों ने भारत के इतिहास को विकृत और मुंबई के फिल्म उद्योग को विषाक्त कर दिया।
वामपंथी होने का दावा करने वाले इस्लामवादी उनके साथ शामिल हो गए और उन्हें महत्वपूर्ण ओहदे मिले। 1971 में नूरुल हसन को केंद्रीय शिक्षा मंत्री बनाए जाने से जो शुरुआत हुई वो इसे साबित करती है। ये अपने आप में दिलचस्प है कि आजादी के बाद भारत के पहले पाँच शिक्षा मंत्रियों में से चार मुस्लिम थे। इन राजनीतिक नियुक्तियों के कारण हैराने करने वाले परिवर्तन हुए जिससे हमारा इतिहास और खास तौर से हमारी फिल्में इस्लाम समर्थक बन गईं।
केंद्र सरकार के कदमों की वजह से भारतीय फिल्मों के ज़रिए नैरेटिव गढ़ने के छिपे हुए एजेंडे को सावधानी से आगे बढ़ाया गया।
फिल्मों के जरिए कोई भी देश अपने नागरिकों और विशेष रूप से अपने युवाओं को प्रभावित करता है। युवा मन बहुत संवेदनशील, बहुत जल्दी प्रभावित किए जा सकते हैं और कई तरीकों से उन्हें बाधित और क्षति पहुँचा कर भविष्य में किसी भी नैरेटिव को उनमें डाला जा सका है।
फिल्में प्रेरणादायक और प्रेरक हो सकती हैं, लेकिन उनका उपयोग धारणा प्रबंधन के लिए भी किया जा सकता है।
आपातकाल के दौरान विद्या चरण शुक्ल को भारत का सूचना और प्रसारण (I&B) मंत्री नियुक्त किया गया था। शुक्ल इंदिरा गांधी के प्रचारक बने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने का जिम्मा उन्हीं पर था।
उन दिनों आकाशवाणी और दूरदर्शन का प्रसारण पर एकाधिकार था। तब तक की फिल्में अपने निष्कलंक रूप में रिलीज होती थीं और पूरी तरह समाज को प्रतिबिंबित करती थीं। मदर इंडिया, मेरा गांव मेरा देश, उपकार और मंथन जैसी राष्ट्रवादी फिल्में प्रचलन में थीं। शुक्ल की नियुक्ति ने यह तय कर दिया कि सबकुछ बदलने वाला है।
शुक्ल और उनके साथियों ने ये सुनिश्चित किया कि वे रिलीज होने से पहले हर फिल्म को अच्छी तरह से देखें। बॉलीवुड की ऐसी फिल्में दिखने लगीं जिन्होंने कभी वामपंथी एजेंडे का खंडन नहीं किया। इरादा ये था कि लोगों के दिमाग और उनकी सोच पर शासन किया जाए। इरादा छिपा हुआ था और उसे परिवर्तन और विकास के एजेंडा के छद्म आवरण से छिपाया जा रहा था। ये वो दौर भी था जब अंडरवर्ल्ड को बॉलीवुड में पैर जमाने का मौका दिया गया।
मनोज कुमार की उपकार और उसके बाद की फिल्में
पटकथाओं और प्रतिमानों में बदलाव की शुरुआत मनोज कुमार की उपकार के बाद हुई। इस फिल्म से ही कहानी में गलत धारणाओं के बीच बोने के प्रयास शुरू हुए।
1970 के दशक की शुरुआत में सलीम खान और जावेद अख्तर ने बच्चन की खोज की, जिनके नाम कई फ्लॉप फिल्में थीं। इस दौर में सरकार आम आदमी की समस्याओं, प्रशासन और राजनेता के हाथों शोषण, बढ़ती कीमतों, बेरोजगारी और बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति के प्रति उदासीन थी। और यहीं से भारतीय फिल्मों में हिंसा और अपराध के माध्यम से व्यवस्था के खिलाफ आम लोगों की आवाज उठाने का जो दौर शुरू हुआ वो आज भी जारी है।
फिल्में एजेंडा परोसने लगीं और आज भी वो सिलसिला जारी है।
ऐसी फिल्में जिन्हें मनोरंजन से भरपूर होना था और जिन्हें जनता को सुकून देने वाला माना जाता था, वो एजेंडा को आगे बढ़ाने का एक साधन बन गईं। उनमें ऐसी झलक दिखती थी जिससे पता चलता था कि कैसे उन्हें समाज के एक वर्ग को चोट पहुँचाने के लिए बनाया गया था। आध्यात्मिक गुरुओं और देवताओं को नकारात्मक रूप से दिखाया जाने लगा। किरदारों के चित्रण में हिंदुओं के प्रति बहुत अधिक पूर्वाग्रह दिखाया गया। इस्लामवादी अंडरवर्ल्ड डॉन को हीरो के रूप में ग्लैमराइज़ किया गया और उनकी तारीफ की गई। ये साफ हो गया कि दुश्मन देशों और भारत में उनसे सहानुभूति रखने वाले फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के साथ ही खाली के देशों के जरिए पैसा लगा रहे थे। ऐसी फिल्मों में कई सीन बिल्कुल खुल्लम-खुल्ला थे लेकिन उनके पीछे की मंशा को समझने में काफी समय लग गया।
इस तरह के चित्रण इत्तेफाक नहीं हो सकते।
यह सारा छद्म आवरण एक ठोस एजेंडे के साथ जुड़ा है।
भारत का विखंडन
कोई भी समाज संकटों या समस्याओं से मुक्त नहीं है। ऐसी कोई संस्कृति नहीं है जिसने कुछ अव्यवस्था और किसी अराजकता के प्रति संघर्ष नहीं देखा हो, लेकिन हिंदुओं पर दोष लगाना और उन्हें अलग रोशनी में दिखाना अलग की स्तर की चाल रही है।
परंपरा किसी भी समृद्ध संस्कृति का एक पवित्र हिस्सा है। किसी सभ्यता को तोड़ने के लिए सबसे पहले दुश्मन जिस चीज का लक्ष्य रखता है, वह है ऐसी परंपराओं को तोड़ना।
इन फिल्मों को एक भू-राजनीतिक लाभ के लिए सांस्कृतिक ताने-बाने और इसकी राजनीति को व्यावसायिक और अधिक महत्वपूर्ण रूप से दीर्घकालिक नुकसान पहुंचाने के इरादे से एक चुने हुए नैरेटिव के साथ बहुत सोच-समझ कर बनाया गया है।
इस ब्रेनवॉश के पीछे एक साजिश है। इन फिल्मों के पीछे छिपा एजेंडा भारतीयों की मनोवैज्ञानिक और उनके मानसिक सुरक्षा कवच को बड़ी चालाकी से छीनना है जो खुद को बचाने के लिए आवश्यक था। संस्कृति का विषाक्त और जहरीला मिश्रण, भाषा विकृति, मानसिकता में बदलाव, और नैरेटिव सब षड्यंत्र का हिस्सा हैं।
दर्शक को यह विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि हमारे समाज में कुछ भी और सब कुछ स्वीकार्य है। तथ्य यह है कि हमारे दुश्मनों से सचमुच हमें खतरा है और ये खतरा सक्रिय है।
भारतीय फिल्मों ने लंबे समय से हर उस चीज को ग्लैमराइज किया है जो भारत विरोधी और हिंदू विरोधी संस्कृति है। हिंदू देवताओं का चुन-चुनकर मज़ाक उड़ाना व्यापक हो चुका है, जो पूरी तरह से बहुसंख्यक संवेदनशीलता का अपमान है।
यह अब इस हद तक बढ़ गया है कि देश की छवि को नुकसान पहुंचाना फैशन और शौक बन गया है। ये दुष्प्रचार रचनात्मक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में चल रहा है।
इस तरह के नकारात्मक चित्रण के पीछे का उद्देश्य।
फिल्में स्थानीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश की पहुंच का विस्तार करती हैं। भारत के पास अब किसी भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रवेश करने की शक्ति और क्षमता है। हम अपनी सॉफ्ट पावर का उपयोग करके अपना प्रभाव क्षेत्र बना सकते हैं।
भारतीय फिल्में दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं और सॉफ्ट पावर का उत्कृष्ट माध्यम हैं। हमारे शत्रु हर हाल में भारत को अपने प्रभाव का प्रयोग करने से रोकना चाहते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि एक बार जब भारत वैश्विक प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंच गया तो उसे कोई पीछे नहीं छोड़ सकता है।
जो हो रहा है वह भारत के विरुद्ध एक अदृश्य युद्ध के अलावा और कुछ नहीं है।
युवा मन खतरे से अनजान और संवेदनशील होते हैं। यदि उन्हें युवावस्था में ही प्रभाव में लिया जाए तो उन्हें भ्रष्ट किया जा सकता है और उनके दिमाग को कई तरह से क्षतिग्रस्त किया जा सकता है।
नाम बदलने (बॉलीवुड के लिए मुंबई) और मौजूदा अर्थ के विपरीत नई शब्दावली गढ़ने, और पहचान में घालमेल के पीछे एक चाल है। चाल ये है कि पहली पीढ़ी अपनी पहचान खोती है, अगली पीढ़ी अपना अभिमान खोती है और तीसरी पीढ़ी अपने मूल का ही विरोध करने लगती है। भारत में यही हो रहा है।
मुंबई के फिल्म निर्माता भारतीय जीवन शैली का मजाक उड़ाने की कोशिश कर रहे हैं और एक वैकल्पिक ग्लैमराइज्ड संस्करण पेश करने के लिए तैयार हैं, जिसका उद्देश्य एक नए धंधे को विकसित करना है जहां युवाओं के लिए एक नई भूमिका और एक नई मिश्रित संस्कृति है, जहां उनकी पहचान पूरी तरह से खो गई है और उनके दिमाग को कैद कर लिया गया है। ऐसे कदम असल में नई दरार पैदा करते हैं और उन दरारों को चौड़ा कर हमारे समाज को सही अर्थ में कमजोर करना चाहते हैं।
जब किसी सभ्यता के स्थानीय ज्ञान पर लगातार सवाल उठाए जाते हैं, उसका ब्रांड दबे पाँव चुराया जाता है, और उसकी परंपराओं का मजाक उड़ाया जाता है, तो इसका उद्देश्य उनके सांस्कृतिक प्रभाव के प्रसार को रोकना होता है। देशभक्ति (जो बहस के दायरे से बाहर होनी चाहिए) पर बहस कर हमारे देश को कमजोर करने के लिए एक गलत मकसद से पैसा लगाया गया है।
सुरक्षा को लेकर भ्रम पैदा करने के लिए आतंकवादियों और बाहरी लोगों की प्रशंसा की जाती है। हिंदुओं के मानस को ठेस पहुंचाने के लिए उनके ही देश में उनका मजाक उड़ाया जा रहा है। इसका उद्देश्य उन्हें हीन महसूस कराना है।
हिंदी और संस्कृत जैसी भाषाएं जो पवित्रता रखती थीं, अब विदेशी भाषाओं के साथ इतनी मिश्रित हो गई हैं कि उन्हें पहचानना मुश्किल है। यह भारतीयों को अस्वच्छ महसूस कराने और उन्हें गुलामी की याद दिलाने की एक चाल है। हजारों वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास से विकसित स्वदेशी संस्कृति के प्रति अवमानना दिखाने के लिए पश्चिमीकरण का महिमामंडन किया जाता है।
कुछ जानकारी छिपाई जाती है या गलत रोशनी में दिखाई जाती है। फिल्में अंतर्विरोधों से भरी होती हैं जो हमारे सिद्धांतों, संवेदनाओं और संवेदनशीलता के साथ मेल नहीं खातीं। ये नैरेटिव दर्शकों के मानस को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है। वे खतरे से परे लग सकते हैं, लेकिन उन्होंने विरासत और सांस्कृतिक गौरव को समाप्त किया है।
कौन सा नैरेटिव है जिसे भारतीय फिल्में दिखाती हैं?
ऐसे शब्द और काम फिल्मों में शामिल किए जाते हैं जो हानिकारक और जहरीले होते हैं। हमारे देश और हमारे समाज को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकवाद को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है। गलत क्या है, ये बताने के लिए मशहूर लोगों का सहारा लिया जा रहा है। वे दर्शकों को प्रभावित करते हैं, खासकर युवाओं को।
भारतीय समाज को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई है कि तथाकथित जाति के आधार पर समाज में भारी बँटवारा है। हिंदू समुदाय के भीतर इन विभाजनों का उपयोग किया जाता है, और नैरेटिव ये है कि भारतीय अंदर तक विभाजित और कमजोर हैं। जाति और पंथ वास्तव में मुसलमानों और ईसाइयों में भी मौजूद है, लेकिन भारतीय फिल्मों में कभी दिखाया नहीं जाता।
चूँकि बाहरी लोगों ने कई शताब्दियों तक भारत पर आक्रमण किया है, इसलिए नैरेटिव ये है कि हम शासित होने के लिए बने हैं और स्वशासन में सक्षम नहीं हैं। इस सच्चाई को सफाई से छुपा लिया जाता है कि विदेशी शासक हमारे धन को लूटने आए थे।
बलात्कार और तलाक जैसे शब्द जो हिंदू परंपरा और संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें भी भारतीय समाज के हिस्से और प्रचलित प्रथा के रूप में दिखाया गया है, और ऐसे दिखाया जाता है जैसे ऐसा आम तौर पर होता है। कहानी की मांग के बिना भी, महिलाओं को वस्तुओं के रूप में दिखाया जाता है और उन्हें कम कपड़े पहनाए जाते हैं, जिसे अब सामान्य माना जाता है। इस बात को महत्व नहीं दिया जाता है कि ये सब हमारे त्योहारों और अनुष्ठानों के साथ मेल नहीं खाता है। अपने माता-पिता को पुराने घरों या अनाथालयों में छोड़ना नया चलन माना जाता है। बिना मिलावट वाली हिंदी बोलने से वक्ता असभ्य और पिछड़ा हो जाता है, जबकि उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी बोलने वाले भी समय के साथ चलने वाले बन जाते हैं। फैशनेबल लोग हिंग्लिश का उपयोग करते हैं, जो हिंदी और अंग्रेजी के बीच की चीज़ है। किसी की भाषा का अपमान करना स्टाइलिश समझा जाता है।
षड्यंत्र वाला नैरेटिव
षड्यंत्र से जुड़े दो नैरेटिव हैं जो चलन में हैं-
कहने की आवश्यकात नहीं है कि इसने WOKES की एक नई नस्ल बनाई है।
निश्चित रूप से मैकाले ने जो कहा था उसकी मिसाल पश्चिम विचारों में मिलती है। और यही भारत विरोधी प्रतिष्ठानों ने अंग्रेजों से सीखा और 1947 से 2014 तक इसे लागू किया।
निष्कर्ष
फिल्में साहित्य की तरह होती हैं….उन्हें समाज को प्रतिबिंबित करना होता है, लेकिन जब फिल्में किसी भी समाज की आवाज निर्धारित करती हैं, एक छिपे हुए एजेंडे का पालन करती हैं, एक गलत नैरेटिव बनाती हैं, तो इसके पीछे निश्चित रूप से एक भू-राजनीतिक स्वार्थ होता है। भारत की जनता जो फिल्मों में विश्वास करती है और उसे सत्य का पर्याय मानती है, यह नहीं जानती कि ये फिल्में ऐसे लोगों द्वारा बनाई गई हैं, जिनके सांस्कृतिक हित, राजनीतिक हित हैं और उदाहरणों, शब्दों और अभिव्यक्तियों का बहुत ही चालाकी से उपयोग करके वे नैरेटिव तैयार करते हैं।
भारत के मामले में क्या ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों का स्वार्थ कुछ अधिक ही गहरा है…!
क्या ऐसा है कि एक नए औपनिवेशिक रूप के माध्यम से भारत का इस्लामीकरण करने के लिए एक आधार तैयार किया जा रहा है जो या तो बलात, बौद्धिक या रचनात्मक हो सकता है? या, क्या यह भारत को कमजोर करने के लिए, पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा भारतीयों को एक झूठी वैश्विक छवि देने के लिए है? या दोनों एक साथ।
पूरी सोच भारतीयों को अपने सहज सुरक्षा आवरण को छोड़ने के लिए तैयार करने की है, जिसे वे किसी भी धारणा को स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं, और उन लोगों के साथ सुरक्षा की झूठी भावना के साथ रहते हैं जो उनके खिलाफ कठोर घृणा रखते हैं। यही नहीं, विषाक्त और जहरीले सांपों के साथ रहने के बावजूद, जो बस एक सही समय पर डसने की प्रतीक्षा में रहते हैं, और नहीं चाहते कि कोई अपनी रक्षा के लिए तैयार रहे।
भारत तेजी से बदल रहा है। देश प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सकारात्मकता और तेजी से खुद को स्थापित कर रहा है। बाहुबली जैसी राष्ट्रवादी फिल्मों ने पूरे फिल्म जगत में बड़ी लहर पैदा की और बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता हासिल की। कश्मीर फाइल्स हमारी राष्ट्रवादी सोच का एक और उदाहरण है जिसने हमारे देश के भीतर और बाहर दुश्मनों को परेशान किया है। इस बदलाव को बनाए रखने की जरूरत है, हमारे अपने नैरेटिव को लिखित और कार्यान्वित किया जाना चाहिए, एक नई भू-राजनीतिक रणनीति की कल्पना की जाना चाहिए जिसमें फिल्मों को हम सॉफ्ट पावर टूल के रूप में देख सेकते हैं।
लेखक– के सिद्धार्थ
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